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Wednesday, August 3, 2011

गीत की जुबान



नही .नहीं

याद नही ....
झे कुछ भी 
उस पहली मुलाकात का
र्फ़ इसके सिवा,
जो तेरी आंखो से ..
मेरी आंखो तक ..
कुछ कौंध के आया था ..
देखा था बेशुमार प्यार
और साथ में ....
कई सवालों को मैंने 
पर न जाने क्यों,
कहा दिल ने ,
यह कोई ख्वाब का साया था ,
सोचा फ़िर रात के अंधेरे में
तुझे कई बार मैंने
जैसे कोई अजनबी खुशबु  सी आ कर 
बदन को सिहरा जाती है  
आता  है हाथो में एक हाथ यूँ  ही ख्यालों में 
और मुद्दतों से जमी कोई बर्फ पिघल जाती है .......
तब सुलग उठता है तन और मन 
और ..........
जैसे इस बदन का अँधेरा  
किसी की  बाहों में उलझ के 
बस अपना आखिरी   दम
तोडना चाहता है 
या जैसे कोई
बरसों से मांगी मुराद का 
सपना अब सच होना चाहता है 
पर तभी न जाने किस ख्याल से 
रूह  जिस्म तक कांप जाता है 
लगता है यूं मुझे  जैसे मैंने 
अनजाने में कोई वर्जित फल 
चख लिया है ....
 तब मेरे बेजुबान बदन से 
स्पर्श  करते तेरे हाथ जैसे 
एक चाँदनी का साया बन जाते हैं 
प्यार के एहसास में डूबे यह हाथ भी 
 मेरे दिल के साथ सिसक जाते हैं 
और तब यूं ही बहती हवा 
ले जाती है उस रिश्ते  की राख को 
उन आखरों तक ...
जो दुनिया की नज़र में 
आज तेरे मेरे लिखे 
गीत की जुबान कहे जाते हैं !!

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