मन के समंदर में
न जाने कितने
घने शैवाल हैं
दिखते तो नहीं
पर ढकी है
पूरी तलहटी
इनके फैलाव से
मेरे अंतर्मन का सच भी
जैसे छिप सा गया है
मोती भरे सीप भी
दिखते नहीं आज -कल
तुम तैरना तो जानते हो
पर गोताखोर नहीं हो
शैवालों में उलझ
लौट आते हो
बार - बार साहिल पर
काश होते गोताखोर तो
ढूँढ ही लाते कोई मोती
जिसे देख मेरे मन पर
छाई शैवाल की परत
कुछ तो हल्की होती .....................................................up ki