आवारा से ख्वाब
कभी भी चले आते हैं
आँखों में
चाहती हूँ कि
कर लूँ बंद
हर दरवाज़ा
और न आने दूँ
ख़्वाबों को
लेकिन इनकी
आवारगी ऐसी है
कि बंद पलकों में भी
समा जाते हैं
घबरा कर
खोल देती हूँ किवाड
जो बामुश्किल
बंद किये थे
और वो ख्वाब
तरल आँखों में
बादल बन
करते रहते हैं
अठखेलियाँ
जब तक
बरस नहीं जाते
लेते नहीं
जाने का नाम
और जाते भी कहाँ हैं ?
बस खेलते हैं
लुका - छिपी
और मैं
देखती रह जाती हूँ
आवारगी ख़्वाबों की.
.............................................................................................up ki
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